"We and Thoughts"
Friday, March 16, 2018
Monday, March 5, 2018
"बस यह ही"
राहगीर धरती की धड़कन में राहगुज़र तू,
फ़लक तेरी स्वांसों से महका है।
नूर ज़िन्दगी का आँख से बेपर्दा हुआ,
धड़कनों में प्यार की सरगम तू,
खुद ही में खुदा ही का सहर चहका है।
ग़रीबी अमीरी की क़यामत है,
अमीरी ग़रीबी से शर्मिंदा है।
ज़िन्दगी का ग़रीबखाना ही तो,
सुहाने सफ़र का अंतिम भरोसा है।
हक़ीक़त ज़ुबान सहर हो रही है,
बस यह एक डग, तेरा दरबार हो रही है।
कहकहे हैं सुनहरी धूप के,
छुप छुप के आसमानी हो रहे हैं।
-Vishwa
Sunday, February 25, 2018
"धन्यवाद"
पैसा-
मानव का दिया हुआ मूल्य है, जो उसे दौड़ा रहा है।
मैं-
इस रेगिस्तान का ऊँट है, जो प्यास के लिए दौड़ रहा है।
रेत-
मुट्ठी से तमाम कोशिश के बावज़ूद, खिसक रही है।
समय-
भोर की किरण; फूल के खिलने तक लुभाती है,
ज़िन्दगी का अपना यह अहसास, यात्रा कहलाती है।
सुंदरता-
इस यात्रा के गीत में, प्यार का रस हो जाती है।
बार बार, माँ याद आती है, जो इस गीत की आत्मा है।
सुबह-
यह ख़बर बहारों में फैल गयी।
सुबह हो गयी-
सुबह हो गयी।
पैसा, मैं, रेत और समय खो गये-
सुबह; होश हो गया।
सुंदरता, प्यार
बस- एक गीत है; यह जहाँ।
गुंजन भोर की, सीतल छाँव दोपहर की और चांदनी रात पूर्णमा की- आनंद-आनंद समीर ह्रदय हो गयी।
धन्यवाद।
-Vishwa
www.motherhouseworld.com
Sunday, October 9, 2016
Subscribe to:
Posts (Atom)